कुतक्याई (हास्य व्यंग)
व्यंग साहित्य में एक ऐसी विधा है जिसके माध्यम से साहित्यकार समाज और व्यवस्था के उन पहलुओं को सहज तरीके से हमारे बीच रखता है। जो हमें प्रभावित करते हैं। व्यंग समाज की वेदना, पीड़ा, बदलाव, अन्याय, अत्याचार को व्यक्त करने का वह माध्यम है जो हमें हमारी ही बातों से गुदगुदाता तो है ही, सोचने के लिए भी विवश करता है। समाज की प्रक्रियाओं में हास्य ढूँढना, उसे सटीक शब्दों में पिरोकर पाठक तक पहुचाना तो शब्द शिल्पी का काम होता ही है। साथ ही समाज को हास्य के माध्यम से विचार देना भी इसका एक अहम पहलू है। अपने आस-पास बिखरे पड़े हास्य को पकड़कर व्यक्त करते हुये समाज की नब्ज टटोलना बिना दृष्टि के संभव नहीं है।
कुमाउनी साहित्य में भी व्यंग के कुछ सशक्त हस्ताक्षर रहे हैं। शेरदा अनपढ़ उनमे से एक हैं। जिन्होने दो-तीन दशक पहले अपने व्यंग वाणों में हंसाते हुये वह बातें कह दी थी जो आज हमारे सामने सच साबित हो रही हें। बहुत पहले शेरदा ने लिख दिया था कि-
नामाक जमिदार भै हम, ग्यू क रवाट खान नें भै।
नामाक हम दुदी भै, दूध जानि चान नै भै।
आज यह बात समूचे पर्वतीय क्षेत्र में शत प्रतिशत सच साबित हो रही है। घर में दूध पैदा करने के बाद भी हमारे बच्चों, महिलाओं तथा परिवार को दूध नहीं मिल पा रहा है। सारा दूध बेचकर हम आर्थिक स्वावलंबन का सपना बुन रहे हैं। व्यंगकार रचनाकार ही नहीं शायद भविष्यदर्शा भी होता है।
बढ़ती महंगाई पर चोट करते हुये शेरदा बड़ी सहजता से बाजारू लूट खसूट को व्यक्त करते हुये कहते हैं –
सौ रुपें क हाथ-कानेलि, पैलि ढकीनी भागुली ।
कानाक मुनाड़ हैई, नाखैकि नथुलि।
दस-बीस और खितौ, कूछि चनरू सुनार।
छै पलि जंजीर द्यूल कूछि, सुत-धागुल न्यार।
यह क्षमता है व्यंग की सामाजिक और व्यवस्थागत मुददों को पैना करने की, बड़ी सरलता से महंगाई की मार को व्यक्त करते हुये शेरदा लिखते हैं कि-
घड़ि-घड़ि याद ऊनों, ठुलबाज्यूक कून।
कनब्वोजि कै लोंछी प्वथा, द्वै रूपैंक लुन।
आज व्यंग के नाम पर जो फूहड़ता और अश्लीलता आ गयी है, सामाजिक मुददों के स्थान पर जिस तरह मर्यादाओं का चीर हरण किया जा रहा है। उससे हंसी तो आ सकती है पर आत्मा दूषित हो जाती है। और व्यंग की गरिमा गिर जाती है।
धन्यवाद
नैन सिंह डंगवाल