बिनसर की ओर एक यादगार यात्रा

पर्वतों की शोभा और सौन्दर्य के समक्ष विश्व के आश्चर्यजनक चमत्कार निष्प्रभ लगने लगते हैं, उनकी रमणीयता अपने में अनूठी है। बिनसर का भ्रमण मुझे इस तथ्य की प्रमाणता सिद्ध करता है। मैं दिल्ली विश्वविघालय की एक नवोन्मेष परियोजना के दौरान आदि मंदिर के दर्शन को गया। जिसमें मेरे साथ 12 छात्र-छात्राऐं एवं 3 अध्यापक भी थे। इस यात्रा में हमारा नेतृत्व मुख्य प्राध्यापक डा. सुरेश कुमार बन्दूनी जी ने किया। बिनसर मंदिर जाने का पैदल मार्ग पीढ़सैण ( 2250 मी.) से प्रारम्भ होता है और वहाँ तक मोटरमार्ग उपलब्ध है।

पौढी गढ़वाल में भगवान बिनसर के आदि मंदिर तक पहुँचने का मानचित्र
पौढी गढ़वाल में भगवान बिनसर के आदि मंदिर तक पहुँचने का मानचित्र

27 दिसम्बर 2015 की सुबह हमने वहाँ से यात्रा प्रारम्भ की। नये वातावरण में नये जोश और उत्साह के साथ हम भगवान बिनसर के दर्शन को चल पड़े। प्रारंभिक चढ़ाई को पार करने में हमारे उत्साह ने ऊर्जा के रूप में हमारा हाथ थामे रखा। सभी छात्र छात्राऐं प्रकृति की सुंदरता को निहारते हुए आगे बढ़ रहे थे।

एक लम्बी दूरी तय करने के बाद सब थोड़ा थक गए, विशेष रूप से महिला वर्ग और चलने की गति के अनुसार हम सभी अलग-अलग समूहों में बँट गए, तेजी से चलने वाला समूह आगे और धीमी गति से चलने वाला समूह पीछे। घने जंगल की विविधता, रंग रूप और शांति सबके दिलों को छू रही थी, सभी लोग सुकून और शांति का आनंद ले रहे थे, प्रकृति के मनभावुक और रमणीय दृश्यों को सभी अपनी आँखों और कैमरों में कैद कर रहे थे।

डॉ. बन्दूनी जी, जो दिल्ली विश्वविघालय में भूगोल के प्रोफेसर हैं और पौढ़ी गढ़वाल के मूल निवासी हैं, मार्गदर्शन करते हुए हर क्षेत्र विशेष से जुड़ी जानकारी व हमारे मन में उठने वाले सवालों का उत्तर देते जा रहे थे। छोटे-छाटे पत्थरों से लेकर विशाल व आसमान चूमती पर्वत श्रृंखलाओं तक का ज्ञान हमें मिल रहा था।

इस पैंदल यात्रा के दौरान थकावट थी, पैरों में थोड़ा भारीपन था, सात आठ किलोमीटर की पद यात्रा के बाद सभी का यही हाल था। परन्तु सभी में एक जोश और एक अनोखे उत्साह भी था। इस समय ऐसा आभास हो रहा था मानो सब एक अटूट श्रद्धा में बंधे हुए हैं। धन्य हैं वे लोग और वह समाज जो अपनी महान सांस्कृतिक व परंपराओं को संजोकर रखते हैं।
कुछ चढ़ाई, सीधा रास्ता और पल भर की ढ़लान, ऐसे रास्ते पर चलते-चलते एक ऐसा बिन्दु आया जहाँ से नीचे की ओर लगभग 200 मीटर दूर मंदिर दिखने लगा। मंदिर के क्षण भर के दर्शन से सारी की सारी थकान लापता हो गई। यही करीब 2 घण्टे 45 मिनट की पैदल यात्रा के बाद पहला समूह भगवान बिनसर के आँगन में पहुँच गया। बिनसर मंदिर की भव्यता मेरे सम्मुख थी जिसका वर्णन इस प्रकार है।

भव्य देवोपम विश्रुतः भगवान बिनसर का आदि मंदिर, थैलसैंण, पौढ़ी गढ़वाल।
भव्य देवोपम विश्रुतः भगवान बिनसर का आदि मंदिर, थैलसैंण, पौढ़ी गढ़वाल

उत्तराखण्ड राज्य में गढ़वाल हिमालय के पौढ़ी गढ़वाल जनपद में दूधातोली पर्वत श्रृंखला की गोद में समुद्र तल से यही कोई 2480 मीटर की ऊँचाई पर देवोपम विश्रुतः भगवान बिनसर का आदि मंदिर सीना ताने स्थित है। बिनसर मंदिर विपुल जनमानस को धार्मिक और सांस्कृतिक अभिव्यक्ति प्रदान करने का सदियों से चला आ रहा प्रेरणा स्रोत, प्रकृति के अनेक थपेड़ों का मूक साक्षी यह मंदिर आज भी अविचल अटल मस्तक उन्नत किये खड़ा है।

हैमवत शैली में बना लगभग 70 फीट ऊँचा भगवान बिनसर का यह मंदिर केदार सदृश्य लगता है। मंदिर की बनावट से स्पष्ट है कि यह मंदिर समय-समय पर बनता रहा है, अर्थात् सुधार व नवनिर्माण की प्रक्रिया चलती रही है। यह भी सम्भव है कि पूर्व काल में यहाँ इससे भी बड़ा मंदिर रहा हो। बिनसर एक वरदानी धाम है, सिद्धी का स्थल है, आनन्द का स्रोत है, इसकी महिमा अवर्णनीय एवं अद्भुत है।

मंदिर के प्रवेश द्वार पर बाहर नागपाश युक्त गणेश जी की भव्य मूर्ति के अलावा हरगौरी महीष मर्दिनी, स्तनपान करते हुए कार्तिकेय स्वामि और नारायण की प्रतिमाएँ हैं। भीतरी गर्भ में कुछ सीढ़ियों के बाद चार विशाल स्तम्भों के मध्य भव्यतम् देवासान है, जिसे स्थानीय लोग बिन्दी कहते हैं। इसमें श्री लक्ष्मी नारायण, पार्वती जी, मुख्य लिंग, नवग्रह, बूटधारी सूर्य, अनन्त नाग की मूर्तियों के अलावा बिनसर के भाई हीत, घन्ड़ियाल लाटू आदि के पूजा स्थान भी सुरक्षित हैं।

वस्तुतः बिनसर की पूजा में किसी मूर्ति विशष की नहीं वरन् सम्पूर्ण देवासान व स्थान की पूजा होती है। मंदिर के बाहर प्रांगण में सुदर शिवलिंग, विशाल नन्दी, और भैरव नाथ जी की गुफा है। सभी छात्र छात्राओं ने यहाँ के दर्शन किये परन्तु उससे पहले यहाँ की परंपरा का ख्याल रखते हुए वसुधारों में स्नान किया। मंदिर में स्नान के लिए 5 शीतल जलधारे हैं। इनमें से 3 पुरूष स्नानागार में तथा 2 महिला स्नानागार में आते हैं। इन जलधाराओं को ही वसुधारे कहा जाता है। इन्हीं से बीणू नदी बनती है, जो रामगंगा की मुख्य सहायक नदी है।

वसुधारे
वसुधारे

बिनसर शब्द का अर्थ है जहाँ कोई चुभन (दुःख) ना हो अर्थात् जिन परमेश्वर के समक्ष दुःखों का अन्त हो जाता है वहीं बिनसर हैं। उत्तराखण्ड हिमालय की प्रख्यात परम् आराध्य परमेश्वरी राज राजेश्वरी नन्दा देवी के जागर गीतों में भगवान बिनसर देवता को माता ने भाई कहकर पुकारा है। लोगों में प्रचलित कथा के अनुसार मंदिर का निर्माण पाण्डवों की हिमालय यात्रा के दौरान महाबली भीम ने किया था।

दीवा माता का मंदिर, ब्रह्मढ़ुगी
दीवा माता का मंदिर, ब्रह्मढ़ुगी

दूधातोली बिनसर मंदिर के अलावा भी भगवान बिनसर के मंदिर पूरे उत्तराखण्ड में पाये जाते हैं। ये मंदिर समय-समय पर राजाओं, सन्तों व भक्तों द्वारा बनाए गये, जैसे अल्मोड़ा के करीब बिनसर मंदिर, रानीखेत में स्थित सौनी बिनसर, ऐसे ही चमोली आदि जिलों में भी भगवान बिनसर के मंदिर हैं। बिनसर मंदिर की अलौकिकता व भव्यता को अपने अंतर में संजोये पहले महिला वर्ग ने बिनसर को प्रणाम कर वापसी की।

मैं और अन्य 5 छात्र व 2 अध्यापक एक अन्य निकटवर्ती तीर्थ ब्रह्मढ़ुंगी पहुँचे। सिद्ध पीठ बिनसर धाम से उत्तर पूर्व में दैड़ा गांव के शीर्ष पर एक विशाल शिला स्थित है जिसमें दीवा माता का मंदिर है। यहाँ से गढ़वाल कुमाऊँ की पहाड़ियां तथा दूधातोली जंगल का विहंगम दृश्य अवलोकित हुआ। इसी को ब्रह्मढुंगी कहा जाता है। 90˚ का कोण बनाकर समुद्र तल से 2600 मीटर की ऊँचाई पर खड़ी शिला का यह भव्य दृश्य एक ऐसी स्मृति बनी जो कभी मेरे जहन से नहीं जाएगी।

डॉ. सुरेश कुमार बन्दूनी, डॉ. मनोज हशीज़ा व साथी
डॉ. सुरेश कुमार बन्दूनी, डॉ. मनोज हशीज़ा व साथी

शिला के ऊपर भव्य पदानुमा (पैर की जैसी) आकृति को महाबलि भीम के पद चिह्नों के रूप में जाना जाता है। उस शिला के ऊपर पहुँचने पर ऐसा आभास हुआ मानों किसी अलग ही संसार में हो, विश्व की विशाल आकृति की कल्पना उस स्थान से की जा सकती थी। आखों के सम्मुख चमकती श्वेत त्रिशूल पर्वत चोटी और सूर्यास्त की लालिमा हमेशा हमेशा के लिए मेरे जहन में कैद हो गई।

यात्रा लेख:
हेमन्त सिंह बिष्ट

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